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आज्ञावाद
भगवान् प्राहः
आज्ञायां मामको धर्म, आज्ञायां मामकं तपः। आज्ञामूढा न पश्यन्ति, तत्त्वं मिथ्याग्रहोद्धताः॥१॥
१. भगवान् ने कहा-- मेरा धर्म आज्ञा में है, मेरा तप आज्ञा में है, जो मिथ्या आग्रह से उद्धत और आज्ञा का मर्म समझने में मूढ़ हैं वे तत्त्व को नहीं देख सकते ।
आज्ञा शब्द का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है-'आ-समन्तात् जानाति' विषय को पूर्णरूप से जानना। साधारणतया उसका प्रयोग आदेश देने के अर्थ में होता है। विषय का ज्ञान दो प्रकार से किया जाता है--आत्म-साक्षात्कार से और श्रुत से। दूसरे शब्दों में ज्ञान दो प्रकार का होता है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष ज्ञान अतीन्द्रिय और परोक्ष ज्ञान इन्द्रिय, मन और शास्त्रजन्य है । प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव में अवलम्बन शास्त्र-आगम हैं। परोक्ष का स्वरूप-निरूपण आगम से होता है। बंधन और मुक्ति का विवेक भी वह देता है। ___ आगम शास्ता की वाणी है ।'शास्ता वे होते हैं जो वीतराग हैं । राग-द्वेष युक्त व्यक्ति की वाणी प्रमाण नहीं होती। उसमें पूर्वापर की संगति नहीं मिलती। शास्ता की वाणी में अविरोध होता है। वे सब जीवों के कल्याण के लिए प्रवचन करते हैं। वे प्रवचन आगम का रूप ले लेते हैं। शास्ता के अभाव में वे ही मार्गदर्शक होते हैं। इसलिए उनकी वाणी आज्ञा है। वह आज्ञा यह है
सबको समान समझो। किसी का हनन, उत्पीड़न मत करो। राग-द्वेष पर विजय करो। कषायों का उपशमन और क्षय करो। इन्द्रिय और मन पर अनुशासन करो। संयम का विकास करो। अहिंसा की परिधि में रहो।
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