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अध्याय १३ : २८३
रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता।
अस्ति लोकोऽपि जीवोऽपि, कर्म कर्मफलं ध्रुवम् । एवं निश्चयमापन्नः, साध्यं प्रति प्रधावति ॥७॥
७. लोक है, जीव है, कर्म है और कर्म फल भुगतना पड़ता हैइस प्रकार जो आस्थावान है, वह साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है।
साध्य का अधिकारी आस्थावान है, अनास्थावान नहीं । जो अनास्थवान है वह धर्म में प्रवृत्त भी नहीं हो सकता। धर्म में वहीं प्रवृत्त हो सकता है जो आस्थावान है । आस्थावान चाहता है कि मैं क्लेश से मुक्त बनूं, जन्म और मृत्यु का विजेता बनूं । मेरी आत्मा परमात्मा है । जब मेरे बन्धन छूट जायेंगे तब मैं आत्मास्वरूप में अवस्थित हो सकूँगा। भोग मेरा साध्य नहीं है, मेरा साध्य है योग । जीव, लोक, कर्म और कर्म-फल-ये आस्था के मूल-सूत्र हैं। इनमें आस्था रखना प्रत्येक आस्तिक का कर्तव्य है।
निरावृत्तिश्च निर्विघ्नो, निर्मोही दृष्टिमानसौ। आत्मा स्यादिदमेवास्ति, साध्यमात्मविदां नृणाम् ॥८॥
८. आत्मविद् ( आत्मा को जानने वाले) पुरुषों के लिए निरावरण, निर्विघ्न-निरन्तराय, निर्मोह और दृष्टिसम्पन्न (सम्यग्दर्शनयुक्त) आत्मा ही साध्य है।
अध्यात्म-द्रष्टा व्यक्तियों का साध्य आत्मा है। लेकिन वह शुद्ध आत्मा है, अशुद्ध नहीं। आत्मा की अशुद्धता वास्तविक नहीं है, वह कर्मजनित है, परकृत है। पर के जब संस्कार छूट जाते हैं तब आत्मा स्वरूप में स्थित हो जाती है। आत्मा का स्वरूप है- अनन्त ज्ञानमय, अनन्त दर्शनमय, अनन्त आनन्दमय और अनन्तः सुखमय।
आवरणस्य विघ्नस्य, मोहस्य दृक्चरित्रयोः। निरोधो जायते तेन, संयमः साधनं भवेत् ॥६॥
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