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३४६ : सम्बोधि
हिंसा में भी पाप का बन्ध प्रबल हो जाता है। और परिणामों की मंदता है वहां बड़े जीव की हिंसा में भी पाप का बंध प्रबल नहीं होता । अल्पज्ञ व्यक्तियों के लिए यह कहना कठिन है कि "पाप कहां अधिक है और कहां कम।" परिणामों की तरतमता ही न्यूनाधिकता का कारण है।
हन्तव्यं मन्यसे यंत्वं, स त्वमेवासि नापरः।
यमाज्ञापयितव्यञ्च, स त्वमेवासि नापरः ॥२८॥ २८. जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है। जिस पर तू अनु.. शासन करना चाहता है वह तू ही है।
'परितापयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः। यञ्च परिग्रहीतव्यं, स त्वमेवासि नापरः ॥२६॥
२६. जिसे तू संतप्त करना चाहता है वह तू ही है। जिसे तू दास-दासी के रूप में अपने अधीन करना चाहता है वह तू ही है।
अपद्रावयितव्यं यं, स त्वमेवासि नापरः।
अनुसंवेदनं ज्ञात्वा हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत् ॥३०॥ ३०. जिसे तू पीड़ित करना चाहता है वह तू ही है । सब जीवों में संवेदन होता है— कष्टानुभूति होती है—यह जानकर किसी को मारने आदि की इच्छा न करे।
आत्मवादी के लिए कोई 'दूसरा' नहीं होता और अनात्मवादी के लिए कोई 'एक' नहीं होता । एक बाहर देखता है और एक भीतर । जो भीतर उतरा, उसने पाया अभेद और जो बाहर खोजता रहा उसने पाया भेद। असुर और देवता एक आत्मद्रष्टा ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि से आत्मबोध की याचना की। संत ने कहा-'तत्त्वमसि'-जिसे खोज रहे हो वह तुम ही हो । दोनों चले आए। दोनों को सन्तोष हो गया कि यह देह की आत्मा है। दोनों भोग-विलास में मस्त हो गए। किन्तु देवता को सन्तोष नहीं हुआ। उसे लगा-गुरु संत इस शरीर के लिए नहीं कह रहे हैं। यह शरीर तो प्रत्यक्ष मरणधर्मा है। वह आया और पूछा-क्या आपका अभिप्राय आत्मा शब्द से शरीर से का है ? किन्तु शरीर विनश्वर है, आत्मा नहीं। संत ने उसी तत्त्व का उपदेश फिर दिया-वह तू ही है। प्राण के
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