Book Title: Sambodhi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 497
________________ ४३४ : सम्बोधि हैं, वैसे वाणी की ऊर्मियों का प्रवाह निरन्तर नहीं रहता। हम जब बोलने का प्रयत्न करते हैं तभी उसका प्रवाह होता है। बोलने की आकांक्षा और उसका प्रयत्न नहीं करना ही उन प्रकम्पनों को रोकना है। यही वाचिक ध्यान है। मानसिक ध्यान-मन के तीन मुख्य कार्य हैं-स्मृति, मनन और कल्पना । अतीत की स्मति, वर्तमान का मनन, और भविष्य की कल्पना होती है। हम जो मनन और चिन्तन करते हैं उसकी आकृतियां बनती हैं। ये आकृतियां मनन समाप्त होने पर आकाश-मण्डल में फैल जाती हैं । वे हमारे मस्तिष्क के भीतर भी अपना प्रतिबिम्ब छोड़ जाती है, जिसे हम धारणा, वासना या अविच्युति कहते हैं। यह धारणा हमारे कोष्ठों में संचित रहती है। जब कभी कोई निमित्त मिलता है हमारे स्मृति कोष्ठ जागृत हो जाते हैं, मन गतिशील हो जाता है। जब हम मनन करना चाहते हैं तब मानसिक अमियों का प्रवाह चालू हो जाता है। जितने समय तक हमारा मन चलता है, उतने समय तक यह प्रवाह भी चालू रहता है। हम स्मृति और मनन के आधार पर कल्पना करते हैं। उस समय भी मन की मियां प्रवाहित हो जाती हैं। . स्मति को रोककर मानसिक मियों को किसी एक विषय में प्रवाहित कर देना मानसिक ध्यान है। इस ध्यान में मानसिक प्रकम्पन समाप्त नहीं होते, किंतु उनकी गति एक दिशा में हो जाती है और जब तक वह गति एक दिशा में रहती है तब तक मानसिक ध्यान बना रहता है। जैसे ही मानसिक अमियों का प्रवाह अनेक दिशाओं में गतिशील होता है, ध्यान भंग हो जाता है। विमला ठक्कर ने मौन में तथ्य के साक्षात्कार की बात कही है। "मौन चित्त की निष्क्रम्पन की अवस्था है, जिसमें विचार और भावना की तरंग नहीं है। विचार, भावना, अहंकार में सारी की सारी ऊर्जा जो बिखर गई थी वह सिमट कर अपने आप में इकट्ठी हो जाती है। वह फिर देखती है। उसका देखना द्रष्टा और दृश्य-दोनों को मिटा देता है । तथ्य का साक्षात्कार होना तथ्याकार हो जाना ___ बोद्ध ध्यान परम्परा के महान् आचार्य बोधिधर्म ने सत्य में प्रवेश के दो द्वारों का प्रयोग प्रस्तुत किया है : ज्ञान और कर्म । ज्ञान - मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सब प्राणियों में एक ही सत्य निहित है। वे सदैव बाह्य विषयों से अवरुद्ध रहते हैं, इसलिए मैं उनसे असत्य को त्यागकर सत्य के ग्रहण करने का आग्रह करता हूं। दीवार को देखते हुए उन्हें अपने चित्त की वृत्तियों को यह मनन करते हुए एकाग्र करना चाहिए कि अहं (मैं) और अपर (दूसरे) का अस्तित्व ही नहीं है। तथा ज्ञानी और अज्ञानी एक समान हैं। १. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ, 'महावीर की साधना का रहस्य, पृष्ठ १३६, १४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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