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साधन-बोध
मेघः प्राह
प्रभो ! तवोपदेशेन, ज्ञातं मोक्षसुखं मया। व्यासेन साधनान्यस्य, ज्ञातुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥१॥
१. मेघ बोला-प्रभो ! आपके उपदेश से मैंने मोक्ष का सुख ‘जान लिया । अब मैं बिस्तार के साथ उसके साधनों को जानना चाहता हूँ।
मेघ ने कहा–संदिग्ध अवस्था में लक्ष्य का चुनाव नहीं होता। उसके लिए 'स्थिरता की अपेक्षा है। अस्थिर मन असफलता का प्रतीक है। मन में श्रेय और अश्रेय की विभाजन-रेखा तब ही खींची जा सकती है, जब कि मन स्वस्थ और असंदिग्ध हो । मेघ के मन पर पड़ा आशंका का पर्दा हटा तब उसने साध्य का चुनाव किया कि मेरा साध्य मोक्ष है। जन्म और मृत्यु दुःख है । उसके बीच होने वाली सुखानुभूति भी भ्रमात्मक है, दुःख-रूप है। दुःख की नामशेषता मुक्ति है। दुःख-जिहीर्षा ही हमें उसके निकट ले जाती है। मेघ ने दुःख को जाना और मुक्ति को भी जाना । अब वह उनके उपायों को जानने के लिए व्यग्र होता है और "भगवान् से अनेक प्रश्न पूछता है।
भगवान् प्राह
अहिंसालक्षणो धर्मस्तितिक्षालक्षणस्तथा । यस्य कष्टे धृति स्ति, नाहिसा तत्र सम्भवेत् ॥२॥
२. भगवान ने कहा-धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और न्दूसरा लक्षण है तितिक्षा । जो कष्ट में धैर्य नहीं रख पाता, वह
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