________________
माता पिता स्नुषा भ्राता भार्या पुत्रास्तथैौरसाः । त्राणाय मम नालं ते, लुप्यमानस्य कर्मणा ॥ १३ ॥
अध्याय ११ : २१७
१३. वह यह चिन्तन करता है कि अपने कर्मों से पीड़ित होने पर मेरी सुरक्षा के लिए माता-पिता, पतोहू, भाई, पत्नी और औरस ( सगे ) पुत्र कोई समर्थ नहीं हैं ।
जैसे-जैसे साधक सत्य की खोज में आगे बढ़ता है, अस्तित्व के निकट पहुंचता है, वैसे-वैसे उसकी स्थूल सत्य की कल्पनाएं गिरने लगती हैं। अब तक का जो माना हुआ कल्पित आकार था वह नष्ट होने लगता है । वह देखता है— मैं अपने को क्या समझता था ? और क्या हूं ? यह नाम-रूप मैं हूं ? दृश्य को 'स्व' समझ रहा था । और 'पर' में आत्म- बुद्धि मान रहा था । मैं और मेरे का संबंध स्थापित किया । संयोग में शाश्वत की बुद्धि थी। अब कोई मेरा प्रतीत नहीं होता । सब अज्ञान था और सब अज्ञान में हैं। संबंधों का जाल खड़ाकर उलझ रहे हैं । मेरा मेरे अतिरिक्त कोई त्राण नहीं है । बुद्ध ने ठीक कहा है- 'अपने दीपक स्वयं बनो, स्वयं ही स्वयं की शरण हो ?"
स्व-दर्शन में झूठी मान्यता टिक नहीं सकती । प्रकाश के सामने अंधकार का अस्तित्व कब टिका है ? सत्य प्रकाश है, ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष मिथ्या 'धारणाएं कैसे खड़ी रह सकती हैं ? बुद्ध को ज्ञान हुआ तब अपने मन से कहा'मेरे मन ! अब तुझे विदा देता हूं। अब तक तेरी जरूरत थी । शरीर रूपी घर - बनाने थे । अब मुझे परम निवास मिल गया ।'
'कोई अपना नहीं है' - इसे खाली दोहराओ मत। सचाई का दर्शन करो । 'नालं मम ताणाए' मेरे लिए धन, पद, यश, प्रतिष्ठा, परिवार, स्वजन आदि कोई त्राण नहीं है और न मैं भी उनका त्राण हूं | जिस व्यक्ति की यह घोषणा है वह 'प्रत्यक्ष- द्रष्टा है । उसने अन्तर में प्रवेश कर निरीक्षण किया है। हम भी इसके -साथ गहराई में उतरें और सचाई का अनुभव करें।
अध्यात्मं सर्वतः सवं दृष्ट्वा जीवान् प्रियायुषः । न हन्ति प्राणिनः प्राणान्, भयादुपरतः क्वचित् ॥ १४॥
१४. सभी जीव सब ओर से सुख चाहते हैं । उन्हें जीवन प्रिय है, यह देखकर प्राणियों के प्राणों का वध न करे तथा भय और वैर - से निवृत्त बने - अभय बने ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org