________________
१९८ : सम्बोधि
आत्म-समाधि-संपन्न साधक कर्मों को इतनी शीघ्रता से भस्मसात् कर देता है, जैसे कि अग्नि सूखे ईधन को क्षणभर में ही भस्मसात् कर देती है।
नरको नाम नास्तीति, नैवं संज्ञां निवेशयेत् । स्वर्गोऽपि नाम नास्तीति, नैवं संज्ञां निवेशयेत् ॥२६॥
२६. 'नरक नहीं है'- इस प्रकार की अवधारणा न करे। 'स्वर्ग नहीं है'-इस प्रकार की अवधारणा न करे ।
मनुष्य प्रत्यक्ष में संदिग्ध नहीं होता। वह संदिग्ध होता है परोक्ष में। दृश्य में जितना विश्वास है उतना अदृश्य में नहीं; जबकि सत्य दोनों हैं। प्रत्यक्ष में सत्य का आग्रह करने वाला परोक्ष की सचाई को झुठला देता है।
मनुष्य और तिर्यञ्च-ये दोनों योनियां प्रत्यक्ष हैं, वैसे स्वर्ग और नरक नहीं। लेकिन उनके प्रत्यक्ष न होने से वे नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है । वह इस सीमा से परे का विषय है। जिस व्यक्ति का आवरण हट जाता है, उसके लिए मनुष्य जैसा ही वह प्रत्यक्ष है। इसलिए अपनी क्षमता को बढ़ाए न कि सत्य को झुठलाए। भगवान महावीर ने इसलिए अपने शिष्यों से कहा कि-'नरक और स्वर्ग नहीं है'--ऐसा संकल्प मत करो।
पञ्चेन्द्रियवधं कृत्वा, महारम्भपरिग्रहौ । मांसस्य भोजनचापि, नरकं याति मानवः ॥२७॥
२७. जो पुरुष पञ्चेन्द्रिय का वध करता है, महा-आरम्भ (हिंसा) करता है, महा-परिग्रही होता है और जो मांस-भोजन करता है वह नरक में जाता है।
सरागसंयमो नूनं संयमासंयमस्तथा।
अकामनिर्जरा बाल-तपः स्वर्गस्य हेतवः ॥२८॥ २८. स्वर्ग में जाने के चार कारण हैं : (१) सराग संयमअवीतराग का संयम, (२) संयमासंयम-अपूर्ण संयम, (३) अकाम निर्जरा-जिसमें मोक्ष का उद्देश्य न हो वैसे तप से होने वाली आत्म-शुद्धि और (४) बाल-तप-अज्ञानी का तप ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org