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अध्याय १४ : ३११
सम्यश्रद्धा भवेत्तत्र, सम्यक ज्ञानं प्रजायते। सम्यकचारित्र-सम्प्राप्तेर्योग्यता तत्र जायते ॥८॥ ८. जिसमें सम्यक्-श्रद्धा होती है उसी में सम्यक-ज्ञान होता है और जिसमें ये दोनों होते हैं उसी में सम्यक्-चारित्र की प्राप्ति की योग्यता होती है।
योग्यताभेदतो भेदो, धर्मस्याधिकृतो मया। एक एवान्यथा धर्मः, स्वरूपेण न भिद्यते ॥६॥
६. योग्यता में तारतम्य होने के कारण मैंने धर्म के भेद का निरूपण किया है। स्वरूप की दृष्टि से वह एक है। उसका कोई विभाग नहीं होता।
महाव्रतात्मको धर्मोऽनगाराणां च जायते । अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम् ॥१०॥
१०. अनगार (घर का त्याग करने वाले मुनि) के लिए महाव्रतरूप धर्म का और गृहस्थ के लिए अणुव्रतरूप धर्म का विधान किया गया है।
__ सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र (आचरण) धर्म है। जिसकी दृष्टि सम्यग हो गई, पर-पदार्थों या मान्यताओं से जो घिरा नहीं है, वह सम्यग् द्रष्टा होता है। सम्यग् ज्ञान भी वहीं होता है और सम्यग् चारित्र की योग्यता भी वहीं होती है। विभाजन योग्यता के आधार पर है। श्रमण और गहस्थदोनों की गति एक ही दिशा की ओर है। किन्तु गति का अन्तर है। एक की यात्रा 'जेट विमान' पर होती है और दूसरे की यात्रा 'कार' या 'साइकिल' पर होती है । पहंचते दोनों हैं पर पहुंचने के समय में अन्तर हो जाता है। महाव्रत की की यात्रा जेट-विमान की यात्रा है। महाव्रती का मुख संसार से उदासीन होता है और परमात्मा के सम्मुख। बस, वह एकमात्र आत्मा को धुरी मानकर अनवरत उसी दिशा में बढ़ता रहता है। उसकी दृष्टि इधर-उधर नहीं जाती और जाती भी है तो तत्काल वह अपने ध्येय पर उसे पुनः ले आता है। श्रमण होकर फिर जो अपने ध्येय-आत्मदर्शन में अप्रवृत्त रहता है तो समझना चाहिए श्रामण्य
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