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अध्याय ६ : १८३
नवमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः।
महाशुक्रसहस्रार-तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥३२॥ ३२. नौ मास का दीक्षित मुनि महाशुक्र और सहस्रार देवों के सुखों को लांघ जाता है।
दशमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः।
आनतादच्युतं यावत्, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥३३॥ ३३. दस मास का दीक्षित मुनि आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवों के सुखों को लांघ जाता है।
एकादशमासगत, आत्मध्यानरतो यतिः । ग्रेवेयकाणां देवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥३४॥ ३४. ग्यारह मास का दीक्षित मुनि नव ग्रैवेयक देवों के सुखों को लांघ जाता है।
द्वादशमासपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। अनुत्तरोपपातिक-तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत् ॥३५॥
३५. बारह मास का दीक्षित मूनि पांच अनुत्तर विमान के देवों के सुखों को लांघ जाता है। ___२४-३५ आत्मिक सुख की तुलना से पौद्गलिक सुख निकृष्ट होता है। पौद्गलिक सुख भी सब में समान नहीं होता। मनुष्यों की अपेक्षा देवताओं का पौद्गलिक सुख विशिष्ट होता है। देवताओं की चार श्रेणियां हैं :
१. व्यन्तर २. भवनपति ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक । व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं : पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व । भवनपति देव दस प्रकार के होते हैं :
ये देव भवनों-आवासों में रहते हैं, अतः इन्हें भवनपति देव कहा गया है। ये दस हैं-असुरकुमार, नागकुमार, तडित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार अनिलकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, दीपकुमार और दिक्कुमार ।
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