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भी ठीक, न गये तो भी ठीक। मगर तब जीवन में एक सहज स्फुरणा होती है।
और मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम जागे रहो तो कालिख से भरी कोठरी से भी निकल जाओगे और कालिख तुम्हें न लगेगी। क्योंकि कालिख शरीर को ही लग सकती है और शरीर तुम नहीं हो; वस्त्रों को लग सकती है, वस्त्र तुम नहीं हो। तुम तो कुछ ऐसे हो जिस पर कालिख लग ही नहीं सकती। तुम्हारा तो स्वभाव ही निर्दोष है। तुम तो सदा से शुद्ध-बुद्ध चिन्मय - मात्र, चैतन्यरूप निराकार हो ! कूटस्थ रहने से कुछ नहीं बनेगा, न तटस्थ रहने से
समष्टि को जीने से, सहने से, जीता है आदमी अकेला तो सूरज भी नहीं है, उससे ज्यादा अकेलापन तुम चाहोगे ? मृत्यु तक तटस्थता निभाओगे ? सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो
घाट से हाट तक,
हाट से घाट तक आओ जाओ तूफान के बीच गाओ
मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर
तटस्थ हो या कूटस्थ हो, इससे फर्क नहीं पड़ता ।
सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो
घाट से हाट तक,
हाट से घाट तक आओ जाओ
तूफान के बीच गाओ
मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर !
परमात्मा इतने गीत गा रहा है, तुम भी सम्मिलित होओ। यह परमात्मा का उत्सव जो चल रहा जगत में, यह जो सृष्टि का महायान चल रहा है, यह महोत्सव जो चल रहा है - इसमें तुम दूर-दूर मत खड़े रहो ; नाचो, गुनगुनाओ, भागीदार बनो! और भागीदार बन कर भी द्रष्टा बने रहो, यही मेरी शिक्षा है। क्योंकि द्रष्टा में कुछ भेद नहीं पड़ता है। तुम किनारे पर बैठ कर द्रष्टा बनोगे तो यह द्रष्टा बड़ा कमजोर हुआ। नदी की धार में और तूफान से खेलते हुए द्रष्टा बनने में क्या अड़चन है ? द्रष्टा ही बनना है न - पहाड़ पर बनोगे, बाजार में नहीं बन सकते ? जब द्रष्टा ही बनना है तो बाजार का भय कैसा ? देखना ही है और इतना ही जानना है कि मैं देखने वाला हूं, तो तुम पहाड़ देखो कि वृक्ष देखो कि नदी- झरने देखो कि लोग देखो, दूकानें देखो - क्या फर्क पड़ता है? द्रष्टा तो द्रष्टा है, कुछ भी देखे। और जो भी तुम देखो, अगर जानते रहो सपना है - तो फिर क्या अड़चन है ?
ऐसा हुआ, रमण महर्षि को अरुणाचल की पहाड़ी से बड़ा लगाव था। वे दिन में कई दफा उठ उठ कर चले जाते थे पहाड़ी पर। कई दफा ! नाश्ता किया और गये ! भोजन किया और गये ! सो कर उठे
खुदी को मिटा, खुदा देखते हैं
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