Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गुण है... वह इस प्रकार- एक, दश, शत (सौ) हजार (सहस्र) इत्यादि... संचयाय-संचित (एकत्रित) द्रव्य के उपर जो है वह संचयाय... जैसे कि- संचित तामोपस्कर से उपर शंख... भावाय... तीन प्रकार से हैं...१. प्रधानाय 2. प्रभूताय... 3. उपकाराय... इन तीनों में जो प्रधानाय है वह सचित्तादि भेद से तीन प्रकार से है... सचित्त प्रधानाय भी द्विपदादि भेद से तीन प्रकार के हैं, उनमें द्विपद-तीर्थंकर चतुष्पद-सिंह अपद-कल्पवृक्ष अचित प्रधानाय-वैडूर्य रत्न आदि. मिश्र प्रधानाय- अलंकृत तीर्थंकर प्रभूताय- अपेक्षा से संभवित है... जैसे कि जीव सभी से थोडे पुद्गल जीव से अनंतगुण अधिकसमय पुद्गल से अनंत गुण द्रव्य / विशेषाधिक प्रदेश अनंतगुण पर्याय अनंतगुण यहां उत्तरोत्तर अव्य है किंतु पर्यायान सभी से अग्र है... उपकाराय - पूर्व जो संक्षेपसे कहा था उसको विस्तार से कहना और जो नही कहा गया था उसको कहना वह उपकारान... जैसे कि- दशवैकालिकसूत्र की चूलिका-द्वय... अथवा तो आचारांगसूत्र का यह दुसरा श्रुतस्कंध उपकाराव्य है... यहां उपकाराय का अधिकार है... यह बात नियुक्तिकार स्वयं ही कहतें हैं किउपकाराय यहां प्रस्तुत है, क्योंकि- यह अग्र नाम का द्वितीय श्रुतस्कंध आचारांगसूत्र के उपर ही विराजमान है... और आचारांगसूत्र में कहे गये आचार को ही विशेष प्रकार से कहने स्वरूप, यह अय-श्रुतस्कंध आचारांग सूत्र से ही संबद्ध है... जैसे कि-वृक्ष एवं पर्वत का अव्य भाग... उपकाराय के सिवा शेष अग्र का स्वरूप तो यहां "शिष्य की मति विकसित हो" इस दृष्टि से और उपकाराय को सुगमता से समझने के लिये कहे गये हैं... कहा भी है किकथनीय पदार्थ के समान जो कुछ होता है वह विधि से यदि कहा जाय तब ही अधिकृत पदार्थ का ज्ञान सुगम होता है...