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[प्रस्तावना
शान्ति और अगान्ति के द्वन्द्र में रहता है। शान्ति का अर्थ है द्वन्द्व का पूर्ण रूपेण गमन । आत्मा अपनी अवस्या मे चैतन्यमय है । वह न शान्त है और न अशान्त । अगान्ति की तुलना मे उसे कहा जाता है, शान्ति । निर्वाण सिद्धि है। निर्वाण होने से पूर्व आत्मोपलब्धि साध्य होता है । आत्मा पूर्ण रूपेण उपलब्ध होते ही साध्य सिद्धि मे परिणत हो जाता है, इसलिए निर्वाण सिद्धि भी है। निर्वाण से पूर्व आत्मा सुख-दुःख के बन्धन से बंधा होता है । वह अपने मौलिक रूप मे आते ही उस वन्चन से मुक्त हो जाता है। इसलिए निर्वाण मुक्ति भी है। आत्मा का पूर्णोदय है वह निर्वाण है और इसे प्राप्त करने का अधिकार उन सब को है जो इसे पाना चाहते हैं। यह उन्हे कमी प्राप्त नहीं होता जो इसे पाना नही चाहते। • युद्ध और निःशस्त्रीकरण
भगवान महावीर अहिंसा के अजल स्रोत थे। हिंसा उनके लिये कही भी क्षम्य नही थी। उनकी दुनिया मे शत्रुता, युद्ध और अशान्ति जैसे तत्व थे ही नही। उन्होंने कहा-मनुष्य-मनुष्य का शत्रु नहीं हो सकता । जब कहा जा रहा था-'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जितो वा मोक्ष्यसे महीम्' तब भगवान ने कहा-युद्ध नारकीय जीवन का हेतु है। भगवान ने कहा-आत्मा से लड। बाहरी लडाई से तुझे क्या ?
अध्यात्म जगत को यही स्थिति है किन्तु सब के सब तो अध्यात्मलीन होते नही। ऐसे व्यक्ति अधिक है जो युद्ध, आक्रमण और अधिकार-हरण मे विश्वास करते हैं। आत्मा से लड-यह