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[ श्री महावीर वचनामृत
तिउट्टई उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुट्टंति पावकम्माणि, नयं कम्ममकुव्वओ ॥१३॥
[सू० ० १, अ०, १५, गा० ६ ] पापकर्मों को जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष ससार मे रहते हुए भी पापों को नष्ट करता है । जो पुरुष नये कर्म नही बाँचता, उसके सभी पाप कर्म क्षीण हो जाते है ।
जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्यवाहो पमत्थति, एवं अत्तसमाहिर अणिहे ||१४||
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[ भ० श्रु० १, अ० ४, उ० ३]
जैसे अग्नि पुरानी सूखी लकडियों को शीघ्र जला देती है, वैसे ही आत्मनिष्ठ और मोहरहित पुरुष कर्मरूपी काष्ठ को जला डालता है ।
पंडिए ।
तुलियाणं वालभावं, अबालं चेव चइऊण बालभावं, अवालं सेवई मुणी ॥ १५ ॥
[ उत्त० अ० ७, गा० ३० ] पण्डित मुनि बालभाव और अबालभाव की सदा तुलना करे. और बालभाव को छोड कर अबालभाव का सेवन करे ।
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