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[श्री महावीर-वचनामृत एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे,
न हिंसए किंचण सबलोए । एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ,
बुझिन्झ लोयस्स वसं न गच्छे ॥१३॥
[सू० ० १, भ०५, उ० २, गा० २४ ] नरक के इन दुःखों का विचार कर धीर पुरुष सर्व लोक मे किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। उसको वाहिये कि वह निश्चय सम्यक्त्व धारण करे, परिग्रह को छोड़ दे और लौकिक मान्यताओ के वश न होकर तात्त्विक बोध ग्रहण करे।