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अष्ट-प्रवचनमाता ]
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ऐसे पाँच प्रकार बतलाये गये है । चलते समय इन पाँच प्रकार के स्वाध्याययो मे भी मन को नही उलझाना चाहिए। मन मे पाठ चलता हो अथवा उसके अर्थ के बारे मे किसी के साथ वार्तालाप हो रहा हो या फिर उसकी पुनरावृत्ति होती हो तो चलते समय सावधानी नही बरती जाती। इसी प्रकार यदि मन उसके गहरे चिन्तन मे खो गया हो तो स्वयं कहाँ चल रहे है ? और किस तरह चल रहे हैं ? इसका भी उन्हे ध्यान नही रहता । साथ ही उस समय किसी को धर्मकथा सुनाने का काम जारी हो तो भी चलने मे अपेक्षित सावधानी नही रहती । इन्ही कारणो से इन दोनों वस्तुओ के निषेध की आज्ञा की गई है ।
कोहे माणं य मायाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विकहासु तहेव य ॥ ६ ॥ एयाइं अट्ठ ठाणाई, परिवज्जितु संजए ।
असाचज्जं मियं काले, भासं भासिज्ज पन्नवं ॥ १०॥
भाषासमिति का अर्थ यह है कि प्रज्ञावान् मुनि क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय, हास्य, भय, वाचालता और विकथा आदि आठ स्थानो का त्याग कर योग्य समय पर परिमित और निरवद्य वचन ही बोले ।
गवसणाए गहणं य, परिभोगेसणा य जा । आहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोहए ॥ ११ ॥