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घारा: १६:
भिक्षाचरी
एसणासमिओ लज्जू , गामे अणियओ चरे । अप्पमत्तो पमहि, पिण्डवायं गवेसए ॥१॥
[उत्त० स० ६, गा० १४] सयमी सावु एषणासमिति का पालन करता हुआ गांव मे अनियतवृत्ति से अप्रमादी होकर गृहस्यों के घर से भिक्षा की गवेषणा करे।
समुयाणं उंछमेसिजा, जहासुत्तमणिदियं । लाभालामम्मि संतुडे, पिण्डवायं चरे मुणी ॥२॥
[उत्तः अ० ३५, गा०६] मुनि को चाहिये कि वह सूत्रानुसार और अनिन्दित अनेक परिवारों से थोडा-थोज आहार ग्रहण करे और मिले अथवा न मिले तो भी सन्तुष्ट रहकर भिक्षावृत्ति का पालन करे।
भिक्खियन्त्रं न केयन्त्र, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। कयविक्कओ महादोसो, भिक्खावित्ती सुहावहा ॥३॥
[ उत्त अ० ३५, गा० १५]