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मिक्षाचरी
साधु सदा ही सामुदानिक (धनवान् और निर्धन इन दोनो) के गृह मे गोचरी करे। वह निर्धन कुल का घर समझकर उसे टालकर धनवान के घर न जाए।
असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरावलोयए। उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअट्टिज अयंपिरो ॥१७॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० २३] गोचरी के लिये गया हुआ साधु घन मे रही स्त्री की नजर से नजर मिला कर न देखे, दूर तक लम्बी नजर न डाले, आँखे फाडफाड कर न देखे। यदि भिक्षा न मिले तो बडबडाए बिना ही वापस आ जाए।
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । . ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥१८॥ एमे ए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तसणे रया ॥१६॥
[दश० अ० १, गा० २-३ ] मॅवरे जब वृक्षो के फूलो का रस पीते है, तब फूलो को तनिक भी पीड़ा नही पहुंचाते और अपनी आत्मा को तृप्त कर लेते हैं। उसी प्रकार इस जगत मे जो समत्व की साधना करनेवाले बाह्य-अस्यतर परिग्रह से मुक्त साधु है, वे भ्रमर के समान इस ससार मे केवल अपने लिये उपयुक्त ऐसी गृहस्थ द्वारा दी गई सामग्नी ( वस्त्र-पात्रादि ), तथा शुद्ध निर्दोष भिक्षा प्राप्त करके सन्तुष्ट रहता है।