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[श्री महावीर-वचनामृत है और साधु के आचार के अनुरूप बर्ताव-व्यवहार करने की शिक्षा को आसेवना-शिक्षा कहते हैं। जहाँ शिक्षा का सामान्य निर्देश किया गया हो, वहाँ इन दोनो प्रकार की शिक्षाओं को समझना चाहिये।
आणानिद्देसकरे, गुरूणमुक्वायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति बुच्चई ॥१०॥
[उत्त० अ० १, गा०२] जो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला हो, गुरु के निकट रहता हो (गुरुकुलवासी हो) और गुरु के इगित तथा आकार से मनोभाव को समझकर कार्य करनेवाला हो, वह विनीत कहलाता है।
अह पण्नरसहिं ठाणहिं, सुविणीए त्ति बुच्चई । नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥११॥ अप्पं च अहिक्खिवई, पवन्धं च न कुबई । मेत्तिजमाणो भयई, सुयं लद्धं न मजई ॥१२॥ न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥१३॥ कलहडमरवजिए, वुद्ध अभिनाइए। हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए तिवुच्चई ॥१४॥
[उत्त० अ० ११, गा० १० से० १३]