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जैसे मधुर शब्द का श्रवण करने मे सरल, रागातुर हरिण असमय मे ही मृत्यु को प्राप्त होता है, वैसे ही शब्द मे अत्यन्त आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे विनाश को प्राप्त होता है।
विवेचन इसके पश्चात् चक्षुरिन्द्रिय के लिये जो कुछ कहा गया है, वही श्रोत्रेन्द्रियादि सभी इन्द्रियों के बारे मे समान रूप से समझना चाहिये। गंधस्स घाणं गहणं वयंति,
घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हे समणुन्नमाहु, दोसस्स हे अमणुन्नमाहु ॥१५॥
[उत्त० अ० ३२, गा० ४६ } गन्ध को ग्रहण करनेवाली घ्राणेन्द्रिय कहलाती है और नाणेन्द्रिय का ग्राह्यविषय गन्ध है। मनोज्ञ गन्ध राग का कारण बनती है, जबकि अमनोज्ञ गन्ध द्वष का कारण बनती है। गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिअंपावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्ध, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥१६॥
[उत्त० अ० ३२, गा०५०] जैसे औषधि की सुगन्च लेने के लिए आसक्त बना रागातुर