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अपरिग्रह ]
[१६६ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, बोक्कस, ऐषिक, वैश्कि, शूद्र जो कोई आरम्भ मे मग्न है और परिग्रह मे आसक्त है, उसका वर बहुत बढ जाता है। विषय-वासनादि प्रवृतियाँ आरम्भ-समारम्भ से 'परिपूर्ण है अतः वे मनुष्य को दुःख से छुडा नही सकती।
विवेचन-बोक्कस अर्थात् वर्णसङ्कर-जाति मे उत्पन्न । ऐषिक अर्थात् बहेलिया आदि। वैशिक अर्थात् वेश्याओ से सम्बन्ध रखनेवाला। जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा,
समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा णरयं उवेन्ति ॥७॥
[उत्त० अ० ४, गा० २] जो मनुष्य धन को अमृत मान कर अनेकविध पापकर्मों द्वारा धन की प्राप्ति करता है, वह कर्मों के दृढ पास मे बंध जाता है और अनेक जीवो के साथ वैरानुबन्ध कर अन्त मे सारा धन-ऐश्वर्य यही पर छोड नरक में जाता है।
थावरं जंगमं चेव, धणं धन्नं उवक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं, नालं दुक्खाओ मोअणे ॥८॥
[उत्त० भ० ६, गा०६] कर्मवश दुःख भोगनेवाले प्राणी को चल-अचल सम्पति, धन, घान्य, उपकरण आदि कोई भी दुःख से मुक्त करवाने मे समर्थ नही है।