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विषय]
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रागस्स हेउं समणुन्नमाहु,
दोसस्स हेउ अमणुन्नमाहु ॥१६॥
[उत्त० भ० ३२, गा० ७५] । स्पर्श को ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय काया ( अथवा स्पर्शेन्द्रिय) कहलाती है और काया का ग्राह्य विषय स्पर्श है। मनोज्ञ (प्रिय) स्पर्श राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज्ञ ( अप्रिय ) स्पर्श द्वष का कारण बनता है। फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं,
अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलायसन्ने,
गाहग्गहीए महिसे व रणे ॥२०॥
[उत्त० अ० ३२, गा०७६ ] जैसे शीतल स्पर्श का लोभी भैसा रागातुर बनकर जगल के तालाब मे गिरता है और मगर का भक्ष्य बन अकाल मे मरण को प्राप्त होता है, वैसे ही स्पर्श मे अति आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे ही विनष्ट होता है। भावस्स मणं गहणं वयंति,
मणस्स भावं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हे अमणुन्नमाहु ॥२१॥
[ उत्त० म० ३२, गा० ८८