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[ श्री महावीर वचनामृत
ब्रह्मचर्यपरायण साधक को चाहिए कि वह मन मे आह्लाद उत्पन्न करनेवाली तथा विषय-वासनादि की वृद्धि करनेवाली स्त्रीकथा का निरन्तर त्याग करे ।
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समं च संथवं थीहि, संकहं च अभिक्खणं ।
भचेररओ
भिक्खू,
निच्चसो
परिवज्जए ||२४||
[ उत्त० अ० १६, गा० ३]
ब्रह्मचर्य मे अनुराग रखनेवाले साधक स्त्रियों के परिचय और उनके साथ बैठकर वारवार वार्तालाप करने के अवसरो का सदा के लिए परित्याग कर दे ।
कुन्यंति संथवं ताहिं,
पन्भट्ठा समाहिजोगेहिं ।
तम्हा उ वज्जए इत्थी,
विसलित्तं व कण्ठगं नच्चा ॥ २५॥
[ सू० श्र० १, भ० ४, उ० १, गा० १६ - ११ ]
जो स्त्रियों के साथ परिचय रखता है, वह समाधियोग से भ्रष्ट हो जाता है । अतः स्त्रियों को विषलिप्त कंटक के समान समझकर ब्रह्मचारी उनका सम्पर्क छोड़ दे ।
नो तासु
चक्खु संघेज्जा,
नो विय साहसं समभिजाणे ।