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विश्वतन्त्र]
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है। इसप्रकार एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े तथा एक योजन गहरे गड्ढे को सूक्ष्म केशो के टुकडो से भर दिया जाय और उस परसे चक्रवर्ती की सेना निकल जाय फिर भी वह दबे नही, इतना लूंस-ठूस कर भर दिया जाय और फिर उस गले मे से सौ-सौ वर्षों के अन्तर से केश का एक-एक टुकड़ा निकालते रहने पर जितने वर्षों मे वह गड्डा खाली होगा, उतने वर्षों को एक पल्योपम कहते है, ऐसे दस कोटाकोटि ( १००००००००x१००००००० ) पल्योपम वर्षों को सागरोपम कहते है। ऐसे बीस कोटाकोटि सागरोपमो का एक कालचक्र बनता है और ऐसे असख्यात कालचक्रो का एक पुद्गलपरावर्त बनता है।
जीव-उपयोग लक्षणवाला है, इसका अर्थ यह है कि जीव किसी भी वस्तु को सामान्य अथवा विशेष रूप से जानने के लिये चेतनाव्यापार कर सकता है। वस्तु को सामान्य रूप से जान लेने को दर्शन कहते हैं और विशेषरूप से जानने को ज्ञान कहते है। चैतन्य का स्फुरण उपयोग है।
जीव को किस प्रकार जाना जा सकता है ? इसके प्रत्युत्तर में यहां कहा गया है कि जहाँ ज्ञान हो, दर्शन हो, तथा सुख-दुःख का भी अनुभव हो, उसे जीव समझना चाहिए। हम मे ज्ञान-दर्शन और सुख-दुःख का अनुभव है, इसलिये हम जीव है। गाय, भैस आदि पशुओ में, कौए, कबूतर आदि पक्षियो में तथा जन्तुओ मे, कोडो मे भी कुछ जानने की शक्ति तथा सुख-दुःख का सवेदन होता है । अतः वे भी जीव हैं; और हरी वनस्पति मे भी कुछ जानने की शक्ति तथा सुखदुःख का सवेदन है, अतः वह भी जीव है । इस प्रकार जहाँ-जहाँ ज्ञान,