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विषय]
[३२१ चिचेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिडे ॥५॥
[उत्त० अ० ३२, गा० २७] रूप की आशा के वश में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव अपने स्वार्थ के लिये रागान्ध बनकर चराचर ( त्रस और स्थावर ) जीवों को अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हे अनेकविध कष्ट देता है और अनेक से पीड़ा पहुँचाता है। रूवाणुवाएण परिग्गहेण,
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलामे ॥६॥
[उत्त० अ०३२, गा० २८] रूप के मोह मे फंसा जीव मनोहर रूपवाले पदार्थों की प्राप्ति में उसके रक्षण और व्यय मे तथा वियोग की चिन्ता मे सलग्न रहता है । वह सम्भोगकाल मे भी अतृप्त ही रहता है। फिर भला उसे सुख कहाँ से मिले ? रूवे अतित्ते य परिग्गहम्मि,
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि । अत्तुट्ठिदोसेण दुही परस्स,
लोभाविले आययई अदत्तं ॥७॥
[उत्त० भ० ३२, गा० २६]