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धारा : १४ :
ब्रह्मचर्य
लोगुत्तमं च वयमिणं ॥ १ ॥
विणयमूलं ॥२॥
[प्रश्न संवरद्वार ४, सूत्र १]
०
यह व्रत लोकोत्तम है ।
बंभचेर उत्तमतव - नियम-नाण- दंसण- चरित्त-सम्मत
[ प्रश्न० संवरद्वार ४, सूत्र १] ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सयम और विनय का मूल है ।
एकं पि वंभचेरे जंमिय आराहियं पि, आराहिय वयमिणं सव्वं तम्हा निउएण वंभचरं चरियत्वं ॥ ३ ॥ [प्रश्न संवरद्वार ४, सूत्र १]
जिसने अपने जीवन मे एक ही की हो, उसने सभी उत्तमोत्तम व्रतों की समझना चाहिये । अतः निपुण साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना
ब्रह्मचर्य व्रत को आराधना आराधना की है - ऐसा
चाहिये ।