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सम्यक्त्व]
[३६१ मे मरने पर दुर्लभबोधि होते है, अर्थात् उन्हें सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति -शीघ्र नही होती।
इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥४॥
[सू० अ०१, अ० १५, गा० १८] जो जीव सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मरता है, उसे पुनः धर्मबोधि प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। साथ ही सम्यक्त्वप्राप्ति के योग्य अन्तःकरण के परिणाम होना अथवा धर्माचरण की वृत्ति होना भी कठिन है।
कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्टिआ। सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एम मग्गे हि उत्तम ॥५॥
[उत्त० अ० २३, गा० ६३ ] कुप्रवचन को माननेवाले सभी लोग उन्मार्ग मे स्थित हैं । सन्मार्ग तो जिन-भाषित है और यही उत्तम मार्ग है।
सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाटा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे वोही ॥६॥
[ उत्त० अ० ३६, गा० २५६]. जो जीव सम्यग्दर्शन मे अनुरक्त हैं, सासारिक फल की अपेक्षा किये बिना धर्म कर्म करनेवाले हैं तथा शुक्ल लेश्या से युक्त हैं, वे -जीव उसी भावना में मरकर परलोक मे सुलभबोधि होते हैं अर्थात उन्हे सम्यग्दर्शनादि को प्राप्ति शीघ्र होती है।