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[ श्री महावीर वचनामृत
चाहिये और रहने के लिये स्त्री आदि के ससर्ग से रहित स्थान को
पसन्द करना चाहिये ।
न वा लभेजा निउणं सहायं,
गुणाहियं वा गुणओ समं वा ।
एको वि पावाह विवज्जयंतो,
विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ||४२|| [ उत्त० अ० ३२, गा० ५]
यदि योग्य छान-बीन के बाद भी गुण मे अपने से अधिक या अपने जैसी ही कक्षावाला - योग्यतावाला निपुण साथी नही मिले तो वह सदा सर्वदा पापो का वर्जन करता हुआ और भोग के प्रति अनासक्त वृत्ति धारण कर अकेला ही विचरण करे ।
जे ममाइअमई जहाइ, से जहाइ ममाइअं । से हु दिट्टभए मुणी, जस्स नत्थि ममाइअं ॥४३॥ [ आचा० भ० २, उ०६ ]
जो अपनी ममतावाली बुद्धि का त्याग कर सकता है, वही परिग्रह का त्याग कर सकता है। जिसके चित्त मे ममत्व नही है, वही ससार के भयस्थानो को भली-भांति देख सकता है ।
वत्थगंधमलंकारं इत्थिओ सयणाणि य ।
अच्छन्दा जे न भुंजंति, न से चाइति वच्च ||४४ || [ दश० अ० २, गा० २]