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[श्री महावीर-वनामृत विवेचन-जैसे-जैसे हिंसा का क्षेत्र बढ़ता जाता है, वैसे-व्से वैर का भी विस्तार होता जाता है, क्योंकि जिन-जिन प्राणियों को हिंसा होती है, वे सब बदला लेने के लिए हर घड़ी तत्पर रहते हैं। अतः अपना हित चाहनेगले व्यक्ति को किसी भी प्राणी की हिता नही करना चाहिये, न ही दूसरे के द्वारा हिंसा करवानी चाहिये। और यदि कोई हिंसा करता हो, तो उसका अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये। अणेलिसस्स खेयन्ने,
ण विरुझेज केणइ ॥१२॥
[सू० ० १, सः १५, गा३] संयम में निपुण मनुष्य को किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। सया सच्चेण संपन्ने,
मित्तिं भूएहिं कप्पए ॥१३॥
[० ० १, १० १५, गा० ३] जितको अन्तरात्मा सदा सर्वदा सत्य भावों से ओतप्रोत है, उसे सभी प्राणियों के साथ मित्रता रखनी चाहिए। सचं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइनो करेज्जा॥१४॥
- [सू० अ० १, अ० १०, गा०७] मुमुक्षु को चाहिये कि वह सारे जगत अर्थात सभी जीवों को