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भिक्षाचरी]
[२३३ अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हुन्ज वयाणं पीला, सामण्णम्मि य संसओ ॥१०॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० १० ] गोचरी के लिये वेश्याओ के मुहल्ले मे जानेवाले साधु को उनका बार-बार संपर्क होता है, जिससे महाव्रतो को पीडा होती है और समाज उसकी साघुता पर सन्देह करने लगता है।
तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवणं । वजए वेससामन्तं, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० ११] इसलिये दुर्गति को बढाने मे सहायता देनेवाले उपर्युक्त दोषो को समझकर एकान्त मोक्ष की कामना रखनेवाले मुनि वेश्याओ के मुहल्लों मे भिक्षा के लिए जाना छोड दे।
साणं सूअं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं । सडिम्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवजए ॥१२॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० १२] जहाँ कुत्ता हो, तत्काल व्याही हुई गाय हो, साड, हाथी अथवा 'घोडा हो या जिस स्थान पर बालक क्रीडा करते हों, कलह हो रहा हो, युद्ध मच रहा हो, वहाँ साघु पुरुषको नहीं जाना चाहिये। बल्कि उसका दूर से ही त्याग करना चाहिये।
अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले । इंदियाणि जहाभाग, दमइत्ता मुणी चरे ॥१३॥
[ दरा० ५० ५, ७० १, गा० १३ ]