________________
२५६ ]
[श्री महावीर-वचनामृत
वस्तुएं देखता है, परन्तु सुनी हुई अथवा देखी हुई सभी वाते वह किसी दूसरे को कहे, यह उचित नही है। अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले ॥२१॥
[उत्त० अ० २, गा० २४] कोई तिरस्कार करे तो भिक्षु उसपर क्रोध न करे।
चत्तयुत्तकलत्तस्स, निबावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जई ॥२२॥
[उत्त० अ० ६ , गा० १५] पुत्र-पली को छोड़नेवाले तथा सासारिक व्यवहार से दूर ऐसे भिक्षु के लिये कोई वस्तु प्रिय नही होती और कोई अप्रिय भी नहीं होती। सन्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी,
___ खंतिक्खमे संजयवंभयारो । सावज्जजोगं परिवज्जयंतो, चरेज्ज भिक्खू सुसमाहिंइन्दिए ॥२३॥
[उत्त० म० २१, गा० १३] भिक्षु को चाहिये कि वह सर्व प्राणियों के प्रति दयानुकम्पी रहे, कठोर वचनों को सहन करनेवाला वने, संयमी रहे, ब्रह्मचारी रहे, इन्द्रियों की सुसमाविवाला बने और सर्व पापकारी प्रवृत्ति का वर्जन करता हुआ विचरण करे।