Book Title: Mahavira Vachanamruta
Author(s): Dhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 435
________________ गरक की वेदना] [४०६ भस्मसात् नही होते हैं। फिर जो भयकर ताडन-तर्जन किया जाता है, इसीसे भी वे मरते नही हैं। किन्तु अपने दुष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए वे दुःखित जीव नियत समय तक दुःख भोगते ही रहते है। ते णं तत्थ णिचा भीता णिच्चं तसिता णिच्चं छुहिया णिच्चं उब्विगा णिच्चं अप्पुआ णिच्चं वहिया णिच्चं परममसुभमउलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥११॥ [जीवा० प्रति ३, उ० २, सू० ८६ ] वे नरक के जीव सदा भयभीत, त्रस्त, क्षुधित, उद्विग्न और व्याकुल रहते हैं और नित्य वध को प्राप्त होते है। वे हमेशा अशुभ और अतुल परमाणुओ से अनुबद्ध होते है। इस तरह नरक मे उत्पन्न हुए जीव पीड़ा का अनुभव करता हुआ अपने दिन निर्गमन करते है। नेरइयाणं भंते ! केवइकालं ठिई पन्नत्तागोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ॥१२॥ [जीवा० प्रति ३, उ० ३, सू० २२२ ] प्रश्न-हे भगवन् ! नारकीय जीवो की स्थिति कितने काल की है ? उत्तर--हे गौतम ! नारकीय जीवो की स्थिति जघन्य से दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की है।

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