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[ प्रस्तावना
स्याद्वाद की भाषा मे किया । इसका हेतु भी समता की प्रतिष्ठा है । एकान्त दृष्टि से देखा गया वस्तुतः सत्य नही होता । एकान्त की भाषा मे कहा गया सत्य भी वास्तविक सत्य नही होता । सत्य अखण्ड और अविभक्त है । प्रत्येक अस्तित्वशील वस्तु सत् है । जो सत् है वह अनन्त-धर्मात्मक है । उसे अनन्त दृष्टिकोणों से देखने पर ही उसकी सत्ता का यथार्थ ज्ञान होता है । इसलिए भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि की स्थापना की। • अनेकान्त दृष्टि
शब्द की शक्ति सीमित है। वह एक साथ अनन्त धर्मात्मक सत् के एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकता है। शेष अनन्त धर्म अप्रतिपादित रहते है । एक धर्म के प्रतिपादन से एक धर्म का ही वोघ होता है, अनन्त घर्मो का नही । इस स्थिति मे हम सापेक्ष पद्धति से ही उसका प्रतिपादन कर सकते है -वस्तु के अनन्त धर्मों से जुडे हुए एक धर्म के माध्यम से उस सभी वस्तु का प्रतिपादन कर सकते हैं ।
भगवान ने अनेकान्त की दृष्टि से देखा तव स्याद्वाद की भाषा मे कहा—प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी है । स्वरूप अविच्युति की दृष्टि से सब पदार्थ नित्य है और स्वगत परिवर्तनो की दृष्टि से सब पदार्थ अनित्य है । कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थ से सर्वथा सा भी नहीं है और सर्वया विसदृश भी नही । सव पदार्थ सदृश भी है और विमदृश भी है । प्रत्येक पदार्थ मत् भी है और असत् भी है । अपने अस्तित्व घटकों की दृष्टि से सब पदार्थ मत् है और