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[श्री महावीर-वननामृत विचारे काम करनेवाला, निर्दयी, पाप कृत्यों मे शंकारहित, अजितेन्द्रिय और इन क्रियाओं से युक्त जो पुरुष है वह कृष्णलेश्या के भावों से परिणत होता है, अर्थात् वह कृष्णलेश्यावाला होता है। इस्सा अमरिस अतवो, अविजमाया अहीरिया । गेही पओसे य सढे, रसलोलुए सायगवेसए ॥२०॥ आरंभाओ अविरओ, खुद्दो साहसिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणसे ॥२१॥
[उत्त० न० ३४, गा० २३-२४] नीललेश्या के परिणामवाला पुरुप ईर्पालु, कदाग्रही, अतपस्वी, अज्ञानी, मायावी, निर्लज्ज, विषय-लम्पट, द्वपी, रसलोलुपी, गठ { धूर्त ), प्रमादी, स्वार्थी, आरम्भी, क्षुद्र और साहसी होता है।
बके चकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचगओवहिए, मिच्छदिडी अणारिए ॥२२॥ उप्फालगदुलवाई य, तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥२३॥
[उत्त० स० ३४, गा० २५ २६ ] जो पुरुप वक्र बोलता है, वन आचरण करता है, छल करनेवाला है, निजी दोपों को छिपाता है, सरलता से रहित है, मिथ्याष्टि तथा अनार्य है, इसी प्रकार दूसरों के मर्मों का भेदन करनेवाला, दुष्ट वोलनेवाला, चोरी और असूया करनेवाला है ; वह कापोतलेल्या मे युक्त होता है।