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सामान्य साधुधर्म पंचासबपरिण्णाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणी ॥१॥
[दश० अ० ३, गा० ११] निर्गन्य मुनि (हिंसादि) पाँच आश्रवद्वार के त्यागी. तीन गुप्तियो से गुप्त, छह प्रकार के जीवो की दया पालनेवाले, पाँच इन्द्रियो का निग्रह करनेवाले, स्वस्थ चित्तवाले और सरलस्वभावी होते हैं।
गोरवेसु कपाएसु, दण्डसल्लभएसु अ । नियत्तो हाससोगाओ. अनियाणो अवंधणो ॥२॥
[उत्त० अ० १९, गा० ६२] साधु ( रसगारव, ऋद्धिगारव और सातागारवादि तीन प्रकार के ) गारव, (क्रोवादि चार प्रकार के ) कषाय, ( मन, वचन, काया को ) दुष्प्रवृत्तिओं तथा ( माया, निदान और मिथ्यात्वादि तीन ) शल्य, भय, हास्य एवं शोक से निवृत्त होता है। वह जप-तप के फलस्वरूप सासारिक सुखो की कामना नहीं करता और माया के बन्धनो से पूर्णतया मुक्त होता है।