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धारा : १०:
धर्माचरण जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥१॥
[उत्त० अ० २३, गा०६८] जरा और मरण के प्रचड झझावात मे जीवो की रक्षा के लिये धर्म एक द्वीप ( बेट ) है, आधार है और उत्तम शरण है।
विवेचन-जहाँ जन्म है वहाँ जरा और मरण अवश्य है । जरा और मरण का वेग इतना तो प्रचण्ड है कि रोकने से रुक नही सकता, अर्थात् उसके प्रचंड प्रवाह मे प्राणी मात्र को बहना ही पड़ता है और अनेक प्रकार के दुःखो का अनुभव भी करना पड़ता है। ऐसी अवस्था मे धर्म ही एक अद्वितीय सहायक बनता है, इसके आधार पर ही जीव मात्र अचल-अटल रह सकते है, और उनकी उत्तम रीति से रक्षा होती है। अन्य शब्दो मे कहे तो जिसने धर्म का आचरण नही किया उसको वृद्धावस्था मे बहुत दुःख उठाना पड़ता है और उसकी मृत्यु बिगड जाती है।
मरिहिसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे विहाय ।