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धर्माचरण]
[११७ प्रकार की स्वच्छदता (दुराचार ) हो वहाँ भी धर्म नहीं होता।
और जहाँ एक अथवा अन्य प्रकार से भोग-विलास की पुष्टि हो, वहाँ भी धर्म नही होता । जो अहिंसा, संयम और तपोमय धर्म का शुद्ध भावसे पालन करता है, वह मानव समाज के लिये ही नही अपितु देवताओं के लिये भी वन्दनीय-पूजनीय सिद्ध होता है। साराश यह है कि धर्म के पालन से मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त कर सकता है। अहिंस सच्चं च अतेणगं च,
तत्तो य चम्भं अपरिग्गहं च। पडिबजिया पंच महन्वयाणि, चरिज धम्म जिणदेसिगं विदू ॥७॥
उत्त० अ० २१, गा० १२ ] बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांच महाव्रतो को जीवन मे स्वीकार कर श्री जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे।
विवेचन-जो इन पाँच महाव्रतो को स्वीकार नही कर सकता, उसके लिये पांच अणुव्रत, तीन गुणनत और चार शिक्षाव्रत-ऐसे बारह प्रकार के अन्य व्रतो की भी योजना की गई है। कदाचित् इनका पालन भी नही किया जा सके तो इनमे से जितना बन सके उतना पालन करना चाहिये और उसमे प्रतिदिन अधिकाधिक प्रगति किस प्रकार हो, इसका सदा ध्यान रखना चाहिये। .