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प्रमाद]
[३०८ प्रमादी पुरुष इस लोक मे अथवा परलोक मे कहीं भी धन के द्वारा अपना रक्षण नही कर सकता। अनन्त मोहवाले इस प्राणी का विवेकरूपी दीपक बुझ जाता है, अतः वह न्याय-मार्ग को देखते हुए भी नही देख कर कार्य करता रहता है। तात्पर्य यह कि वह न्याय-मार्ग मे प्रवृत्त नहीं होता। सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, __ भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्तो ॥७॥
[उत्त० अ० ४, गा ] मोहनिद्रा मे गाढ सोये हुए मनुष्यो के बीच रहते हुए भी सदा जागृत बुद्धिमान् पण्डित प्रमाद का विश्वास न करे। अर्थात् वह प्रमादी न बने। काल भयकर है और शरीर निर्बल, ऐसा मानकर वह भारड पक्षी के समान अप्रमत्त बनकर विचरण करे। छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं,
आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुन्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥८॥
[उत्त० अ०४, गा८] जैसे सवा हुआ कवचधारी घोडा अपनी स्वच्छन्द वृत्ति को रोकने के पश्चात् ही विजयी होता है, वैसे ही मनुष्य भी अपनी स्वच्छन्द