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कर्मवाद]
[५३ और जो दोनो के मिश्रणवाली है वह सचित्ताचित्त। जिसका स्पर्श शीतल-ठडा है वह शीत, गर्म है वह उष्ण, और कुछ भाग मे शीत और कुछ भाग मे उष्ण हो वह शीतोष्ण। जो ढंकी हुई हो वह संवृत्त और जो खुली है वह विवृत्त तथा जो कुछ अश मे ढंकी हुई और कुछ अश मे खुली हो वह सवृत्त-विवृत्त ।
अन्य सम्प्रदाय भी ८४ लाख योनि को मान्यता रखते हैं, किन्तु उनकी गणना अन्य प्रकार से करते है।
अस्सि च लोए अदु वा परत्था,
सयग्गसो वा तह अन्नहा वा। संसारमावन्न परं परं ते, बंधंति वेदंति य दुन्नियाणि ॥४॥
[सू० श्रु० १, अ० ७, गा० ४] किये गये कर्म, इस जन्म मे अथवा अगले जन्म मे ही सही जिस तरह भी किये गये हो वे उसी तरह से अथवा अन्य प्रकार से फल देते है। ससार मे भ्रमण करता हुआ जीव मानसिक, वाचिक और कायिकादि दुष्कृतो के कारण निरन्तर नये-नये कर्म बांधता ही रहता है तथा उनका फल भोगता है। सच्चे सयकम्मकप्पिया,
अवियत्तेण दुहेण पाणिणो।