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भिक्षाचरी]
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न सम्ममालोइयं हुजा, पुच्विं पुच्छा व जंकडं । पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्ठो चिन्तए इमं ॥४३॥ अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥४४॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० ६१-६२ ] पहले अथवा बाद मे किये गये दोषो की उस समय यदि पूरी तरह आलोचना न हुई हो तो फिरसे इसका प्रतिक्रमण करे और तब कायोत्सर्ग करके ऐसा चिन्तन करे कि 'अहो ! जिनेश्वर देवो ने मोक्षप्राप्ति के साधनभूत साधु का शरीर धारण करने के लिये कैसी निर्दोष भिक्षावृत्ति बताई है ?'
णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं । सज्झाणं पट्ठवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥४॥
[दश० अ० ५, उ० १, गा० ९३] पीछे 'नमो अरिहंताण' उच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग पालन कर 'जिनस्तुति करके स्वाध्याय करता हुआ मुनि कुछ समय के लिये विश्राम करे।
वीसमंतो इमं चिंते, हियमढे लाभमट्ठिओ। जइ मे अणुग्गहं कुजा, साहू हुजामि तारिओ ॥४६॥
[दश० अ०५, उ० १, गा० ६४] विश्राम लेने के पश्चात् निर्जरारूपी लाभ का इच्छुक वह साधु अपने कल्याण के लिये ऐसा चिंतन करे कि 'अन्य मुनिवर मुझ पर