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सिद्ध जीवों का स्वरूप ]
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योजन मोटी है, वहाँ से कम होते-होते अन्तिम सिरे पर मक्खी के पंख से भी अधिक पतली बनी हुई है । वह ईषत्प्राग्भार पृथ्वी स्वभाव से ही निर्मल और अर्जुन नामक श्वेत सुवर्ण के समान है । श्री जिनेश्वर भगवन्तो का कथन है कि उसका आकार उलटे किये हुए छत्र के समान है । यह पृथ्वी शख, अक रत्न तथा कुन्द पुष्प के समान श्वेत, निर्मल और सुहावनी है । उसी पर लोक का अन्त भाग माना गया है ।
विवेचन - हम मनुष्यलोक मे निवास करते है । यहाँ से जब अधिकाधिक ऊपर जाते है तो सर्व प्रथम ज्योतिषचक्र अर्थात् सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि के दर्शन होते है, उसके ऊपर बारह देवलोक है और उसके ऊपर नवग्रैवेयक नामक विमान । उक्त नवग्रैवेयक विमान के ऊपर पाँच अनुत्तर विमान स्थित है, उन्ही मे से एक विमान सर्वार्थसिद्ध है । मनुष्यलोक से उसकी ऊंचाई करोडो मील दूर है; जबकि उससे भी बारह योजन ऊपर ईषत् - प्राग्भार नामक पृथ्वी है । इसका परिमाण उतना ही है, जितना कि मनुष्यलोक का है । अन्य वर्णन स्पष्ट है ।
जोयणस्स उ जो तत्थ, कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छन्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥१०॥
[ उत्त० भ० २६, गा० ६२ ] वहाँ एक योजन मे ऊपर के एक कोस के छठे भाग मे सिद्धो की अवगाहना है, अर्थात् सिद्धों के जीव वहाँ स्थित है ।
विवेचन -- इस स्थान को सिद्धशिला कहते हैं ।