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[श्री महावीर-वचनामृत वहिया उडमादाय, नावकंक्खे कयाइ वि । पूचकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ।।८।।
[उत्त० म०६, गा० १४] संसार से वाहर और सबसे ऊपर सिद्धगिला नामक जो स्थान है, वहाँ पहुचने का उद्देश्य रखकर ही कार्य करना चाहिये । विषयभोग की आकांक्षा कदापि नही करनी चाहिये। पहले जिन को का सचय क्ाि हुआ है, उनका क्षय करने के लिये ही यह देहधारण करनी चाहिये।
विवेचन-माक्ष मे पहुंचने का अवसर केवल मनुष्यजन्म मे ही मिल सकता है। मानवजन्म अनन्त भवों में भ्रमण करने के पञ्चात् अत्यन्त कष्ट से प्राप्त होता है। बुद्धिमान् लोगो को उपयुक्त तथ्य को लक्ष्य में रखकर ही मोक्षप्राप्ति को अपना ध्येय बनाना चाहिये। यह गरीर भोग-विलास के लिये नहीं है, बल्कि पूर्वसचित कर्मों का क्षय करने के लिये है इन वात को पुनः पुनः अपने मन मे दृढ करने की अत्यन्त आवश्यक्ता है। जब यह बात पूर्णरूप ने मन मे दुड हो जाएगी, तभी भोगासक्ति दूर होकर धर्माचरण करने का उत्साह बढ़ेगा। धम्मे हरए यम्भे संतितित्थे,
अणाविले अत्तपमन्नलेसे । जहिं मिणाओं विमलो विमुद्धो,
मुसीइभृओ पजहामि दामं ॥६॥
[उत्तः २, गा० ४]