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धारा : ३२ :
वीर्य और वीरता
दुहा चेयं सुक्खायं, वीरियं ति पच्चई | किं नु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पच्चई ॥ १ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ८, गा० १] वीर्य दो प्रकार का कहा गया है । ( यह विधान सुनकर मुमुक्षु प्रश्न करता है कि हे पूज्य ! ) वीर पुरुष की वीरता क्या है ? और किस कारण से वह वीर कहलाता है ? (यह कृपा करके बतलाइए ।) कम्ममेगे पवेदेन्ति, अकम्मं वा विल्वया । जहिं दीसन्ति मच्चिया ॥२॥
एहिं दोहि ठाणेहिं
[ सू० श्रु० १, अ० ८, गा० २]
( प्रत्युत्तर मे भगवान् कहते हैं ) हे सुव्रती ! कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को । मृत्युलोक के सभी प्राणी इन दो भेदो मे विभक्त हैं ।
विवेचन - वीर्य आत्मा का मूल गुण है, किन्तु इसका स्फुरण जिस अवस्था मे होता है, उसके आधार पर उसके दो भेद कहे गये हैं-सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य । आत्मा कर्मजन्य औदयिक भाव मे रहता हो तब जो वीर्य का स्फुरण होता है वह सकर्म अथवा