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[श्री महावीर-वचनामृत
खेत्तं वत्थं हिरण्णं च,
च वन्धवा । चइत्ता णं इमं देहं, गन्तव्यमवसस्स मे ॥६॥
[उत्त० अ० १६, गा १७] मनुष्य मात्र को हमेशा ऐसा सोचना चाहिये कि क्षेत्र (भूमि), घर, सोना-चांदी, पुत्र, स्त्री, सगे-सम्बन्धी तथा शरीरादि सभी को छोड़कर मुझे एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा।
जस्सिं कुले समुप्पन्ने, जहिं वा संवसे नरे। ममाइ लुप्पई वाले, अन्नमन्नेहि मुच्छए ॥१०॥
[सू० ०१, अ० १, २०१, गा०४] मनुष्य जिस कुल मे उत्पन्न होता है अथवा जिनके साथ वास करता है, उनके साथ अज्ञानवश ममत्व से लिपट जाता है। (अर्थात यह मेरी माता, यह मेरी पत्नी, यह मेरा पुत्र, ऐसा मानता है।) ठीक वैसे ही अन्यान्य वस्तुओं मे (धन-धान्यादि में) भी मूच्छित (ममत्व-शाली) होता है।
वित्तं सोयरिया चव, सबमेयं न ताणइ । संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ ॥११॥
[सू० श्रु० १, अ० १, उ०१, गा०५] धन-धान्य और वान्वव आदि कोई भी आत्मा को ससारस्परिभ्रमण से बचा नही सकते । अतः सुज सावक को यह जीवन स्वल्प