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साधना-क्रम]
[१०५ चाहिये। जिसने इस तरह का ज्ञान प्राप्त नही किया, उसको अजीव का ज्ञान भी नही हो सकता, क्योकि इन दोनो के बीच का भेट उसकी समझ में नहीं आता। इस तरह जो जीवो और अजीवो, दोनो के स्वरूप से अज्ञात है, वह सयम का स्वरूप भी नही जान सकता, क्योकि सयमपालन का जीवदया के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है।
जो जीवे वि बियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाजीवे चियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥३॥
[दश० अ० ४, गा० १३] जो जीवोंको अच्छी तरह जानता है, वह अजीवो को भी अच्छी तरह जानता है। इसी प्रकार जीव और अजीब दोनो को सर्वोत्तम रूप मे जाननेवाला संयम को भी अच्छी तरह जान लेता है।
जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गइं बहुविहं, सवजीवाण जाणइ ॥४॥
[दश० अ० ४, गा० १४] जब कोई साधक जोवो और अजीवों को उत्तम रीति से जानता है, तब वह सभी जीवो की बहुविध गति को भली-भांति पहचानता है।
विवेचन-यहाँ गति शब्द का अर्थ एक भव से दूसरे भव में जाने की क्रिया समझनो चाहिये । यह गति नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इस तरह चार प्रकार की है। ससारी जीव को इन चार गतियो में से एक गति मे अवश्य उत्पन्न होना पड़ता है, क्योकि उसने इस