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मोग-साधना]
.योग-साधना
विना योग-मार्ग के आत्मशद्धि, आत्मा का साक्षात्कार, मुक्ति अथवा निर्वाण नही होता-ऐसा मानकर भगवान् महावीर ने योगमार्ग ग्रहण किया था।
भोग और ऐश्वर्य का परित्याग किये बिना योग-दीक्षा सम्भव नहीं, अतः भगवान् ने सभी प्रकार की भोग-लालसाएं छोड दी थी और सारे ऐश्वर्य का त्याग करके एक निर्ग्रन्थ अर्थात् श्रमण की वृत्ति ग्रहण कर ली थी।
जब तक पापकारिणी प्रवृत्तियो, पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध नहीं रखा जाय, तब तक आत्मा पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ बन नही सकती, इसलिये योगदीक्षा ग्रहण करते समय सर्वविध पापकारिणी प्रवृत्तियो (सावद्ययोग) का मन, वचन और काया से परित्याग किया था।
योग की साधना यम-पूर्वक ही सिद्ध होती है, अतएव उन्होने योगसाधना के प्रारम्भ मे ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-ये पांच यम (महाव्रत) धारण किये थे और अप्रमत्तभाव से इनका पालन करते थे।
यमो के साथ कुछ नियमो की भी आवश्यकता रहती है। यही कारण था कि भगवान् ने रात्रि-भोजन-त्याग आदि कुछ नियम स्वीकृत किये थे और आवश्यकता अनुसार उनमे परिवर्तन भी किया था। उदाहरण के रूप में किसी तपस्वी के आश्रम मे कुछ कटु अनुभव होने पर उन्होंने निम्नलिखित पांच नियम धारण कर लिये थे :(१) अप्रीति हो ऐसे स्थान मे नही रहना, (२) यथासम्भव ध्यान मे