Book Title: Mahavira Vachanamruta
Author(s): Dhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 440
________________ [ श्री महावीर वचनामृत आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विपरिया सुवेन्ति ॥ १२ ॥ [सू० ० १, अ० १२, गा० १३] जो राक्षस हैं, जो यमपुरवासी हैं, जो देव हैं, जो गन्धर्व हैं और जो अन्य कायावाले हैं तथा आकाशगामी अथवा पृथ्वीनिवासी है, वे सभी मिथ्यात्व आदि कारणो से ही वार वार भिन्न-भिन्न रूप मे जन्म धारण करते हैं । इहमेगे उ भासन्ति, सायं सायेण विज्जई | जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहियं ॥ १३ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ३, उ०४, गा० ६ ] कोई कहते हैं कि सुख से हो सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु वह सत्य नही है | उसमे जो आर्यमार्ग है, वही परम-समाधि देनेवाला है । मा एयं अवमन्नन्ता, अप्पेण लुम्पहा बहुं । ४१४ ] एयस्स उ अमोक्खाए, अयोहारि व जूरह ||१४|| [सू० ध्रु० १, न० ३, २०४, गा० ७ ] इस परम - मार्ग की अवज्ञा करके अल्प सुख के लिये बहु सुख का नाश मत करो। भोग-मार्ग अमोक्ष का है । जो तुम इतना नही समझोगे, तो लोहे के बदले सोना न लेनेवाले वणिक की तरह पञ्चात्ताप करोगे । जहा य अंडप्पभवा वलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य ।

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