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[श्री महावीर वचनामृत
सर्प विल से बाहर निकलते ही मारा जाता है, वैसे ही गत्व के प्रति. आसक्ति रखनेवाला भी अकाल मे विनष्ट हो जाता है। रसस्स जिन्भं गहणं वयंति,
जिभाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समगुन्नमाहु, दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु ॥१७॥
[उत्तः भ० ३२, गा०६२] रस को ग्रहण करनेवाली जिह्वन्द्रिय (अथवा रसनेन्द्रिय ) कहलाती है और जिह्वेन्द्रिय का विषय रस है। मनोज्ञ (प्रिय ) रस राग का कारण बनता है, जबकि अमनोज (अप्रिय ) रस द्वेष का कारण बनता है। रसेसु जो गिद्धिमुवेड तिन्वं,
अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्ध ॥१८॥
[उत्त० म० ३२, गा० ६३ ] जैसे मांस खाने के लिये लालची वना मत्स्य व्सी के काटे मे फंस कर अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है, वैसे ही रस मे अति आसक्ति रखनेवाला भी असामयिक मृत्यु को प्राप्त होता है। 1. फासस्स कायं गहणं वयंति,
कायस्स फासं गहणं वयंति ।