________________
अष्ट-प्रवचनमाता]
[२२५ विवेचन-मन (१) सत्य, (२) असत्य, (३) अर्ध-सत्य और अर्थ असत्य तथा (४) सत्य भी नही और असत्य भी नही, ऐसे चार विषयो मे प्रवृत्त होता है। इस लिए मनोगुप्ति का चार प्रकार माना गया है।
सरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज जगं जई ॥२६॥
[उत्त० अ० २४, गा० २१] संयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत होते मन का नियन्त्रण करे।
विवेचन-आरम्भ अर्थात् जीवविराधना । उसके सम्बन्ध मे सकल्प किया जाय वह सरम्भ और जो आवश्यक प्रवृत्ति की जाय वह समारम्भ। मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ ॥२७॥
[उत्त० अ० २३, गा०५८] मन एक साहसिक, भयकर और दुष्ट घोड़े के समान है, जो ___ चारो ओर दौड़ता है।
साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेदियाणि य। पावकं च परिणामं, भासादोसं च तारिसं ॥२८॥
[सू० ध्रु० १, अ०८, गा० १७ ] ज्ञानी पुरुष हाथ-पैर का संकोच करते है, मन और पांच इन्द्रियों को वश में रखते है और दूष्ट भावो को हृदय मे उठने नही देता। उसी तरह वह सावध भाषा का सेवन भी नहीं करता।