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सामान्य साधुधर्म]
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जो वस्त्र, गन्ध, अलकार, स्त्री, पलग आदि का परवशता के कारण उपभोग नही कर सकता, उसे सच्चा त्यागी अर्थात् साघु नही कहा जा सकता।
जे य कंते पिए भोए, लद्ध वि पिढिकुबई । साहीण चयई भोए. से हु चाइ त्ति बुच्चइ ॥४॥
[दश० अ० २, गा० ३] जो इष्ट और मनोहर भोग प्राप्त होने पर भी उनका परित्याग करता है, तथा स्वाधीन भोगो को भी नही भोगता है, वही सच्चा त्यागी अर्थात साघु कहा जाता है। छज्जीवकाए असमारभन्ता,
मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इथिओ माणमायं,
एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता ॥४६॥
[उत्त० अ० १२, गा० ४१] इन्द्रियो का दमन करनेवाले साघु पुरुष छह काय के जीवो को पीडा नही पहुंचाते, मृषावाद और अदत्त का सेवन नही करते तथा परिग्रह, स्त्री, मान और माया को त्याग करके विचरते हैं।
निदं च न बहु मन्नेजा, सप्पहासं विवजए । मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया ॥४७॥
[दश० भ०८, गा०४२]