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दुर्लभ संयोग ]
एगया खत्तिओ होई, तओ चंडाल वुक्कसो ।
तओ कीड - पयंगोय, तओ कुंथू - पिवीलिया ॥४॥
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जीव किसी समय क्षत्रिय, किसी समय चाण्डाल, किसी समय बुक्कस, ( वर्णसंकर जाति), किसी समय कोट, किसी समय पतंग, किसी समय कुंथू और किसी समय चीटी भी बनता है ।
एवमाचट्टजोणीसु, पाणिणो कम्मकिव्विसा । पण णिविज्जति संसारे, सव्वसु व खत्तिया ॥ ५॥
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सर्वप्रकार की ऋद्धि-वैभव होने पर भी जिस तरह क्षत्रियो की राज्यतृष्णा शान्त नही होती, ठीक उसी तरह कर्मरूपी मैल से लिपटे जीव भी अनेकविध योनियो मे परिभ्रमण करने के बावजूद भी विरक्त नही होते ।
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कम्मसंगेहिं सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा | अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मन्ति पाणिणो ॥ ६ ॥
कर्म के सम्बन्ध से मूढ बने हुए प्राणी असख्य वेदनाएं प्राप्त कर तथा दुःखी होकर मनुष्ययोनि के अतिरिक्त दूसरी योनियो में जन्म धारण कर बार-बार हना जाता है ।
कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुत्री कयाइ उ । जीवा सोहिमणप्पत्ता, आययति मणुस्सयं ॥७॥
क्रमशः अर्थात् एक योनि मे से दूसरी योनि में भटकते हुए, की गई अकामनिर्जरा के कारण कर्मों का भार हलका हो जाने